लाभ या अंध विश्वास ?
हर वर्ष जब दीपों का त्योहार आता है, हम बिना सोचे-समझे वही पुरानी परंपराएँ दोहराते हैं। घर को जगमगाते हैं, दीपक सजाते हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं, पटाखे फोड़ते हैं — और मान लेते हैं कि हमने “धर्म” निभा लिया। लेकिन क्या कभी रुककर स्वयं से पूछा — “क्या इस सब से मुझे, मेरे समाज को, या देश को कोई सच्चा लाभ हुआ?”
आप जिनसे यह प्रश्न पूछें — वे शायद मुस्कुरा देंगे, या कहेंगे, “भई, यह तो परंपरा है!”
पर सच पूछो तो यह परंपरा नहीं, एक अंध-अनुकरण है, जिसे हमने धर्म का नाम दे दिया है।
दिवाली की असली रोशनी कहाँ है?
आप पिछले 70–80 वर्षों से दिवाली मना रहे हैं। हर साल हजारों रुपये के दीपक, तेल, पटाखे और सजावट में खर्च करते हैं। अपनी तिजोरी की पूजा करते हैं और मान लेते हैं कि लक्ष्मी प्रसन्न हो गईं। लेकिन क्या कभी देखा कि इस सब से आपके जीवन में कुछ बदला?
आपके पिता, दादा, परदादा — सभी ने यही किया। क्या उन्हें कोई स्थायी सुख, कोई आध्यात्मिक संपन्नता मिली?
धन के नाम पर खर्च बढ़ा, दिखावा बढ़ा, और मन में लोभ भी — लेकिन क्या भीतर कोई रोशनी जली?
धर्म का दीपक बाहर नहीं, भीतर जलता है
धार्मिकता दीपक या पटाखों में नहीं मिलती।
वह तो तब जन्म लेती है जब मनुष्य अपने भीतर का अंधकार पहचानता है।
सच्ची दिवाली तब होती है जब हम अपने भीतर के अंधकार —
लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध — को मिटाकर आत्मा का दीपक जलाते हैं।
उस दीपक में तेल बनता है स्वयं का अहंकार,
उसकी बाती बनती है अपने पुराने जड़ विचारों की,
और उसकी लौ बनती है जागरूकता की।
जब यह दीपक भीतर जलता है, तब मनुष्य का सारा अस्तित्व प्रकाशित हो उठता है।
यह है सच्ची दिवाली —जहाँ बाहर की नहीं, भीतर की रोशनी फैलती है।
एक सामूहिक मूर्खता
आज की दिवाली उपभोक्तावाद की पराकाष्ठा बन चुकी है।हम लाखों रुपये फूँक देते हैं उस दिन पर,
जिस दिन हमारे देश में अब भी करोड़ों लोग अंधेरे घरों में सोते हैं।
हम लक्ष्मी की पूजा करते हैं —
पर क्या कभी लक्ष्मी का सच्चा स्वरूप समझा?
लक्ष्मी समृद्धि की प्रतीक हैं, लेकिन समृद्धि केवल धन से नहीं होती।
वह आती है संतोष, श्रम, और संवेदना से।
जिस घर में करुणा नहीं, वहाँ कोई देवी नहीं बसती।
जिस हृदय में अहंकार भरा हो, वहाँ पूजा की घंटियाँ भी खोखली हैं।
जागृति की दीवाली मनाओ
अब समय है इस अंधविश्वास और दिखावे से बाहर निकलने का।
दिवाली को केवल सजावट और खरीदारी का पर्व न बनाओ,
बल्कि स्वयं से मिलने का पर्व बनाओ।
क्यों न इस बार एक दीपक कम जलाओ —
और किसी ज़रूरतमंद के घर में रोशनी ले जाओ।
क्यों न इस बार पटाखों के शोर की जगह,
अपने भीतर की शांति को सुनो।
दिवाली का असली अर्थ है —
अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा।
और यह अंधकार बाहर नहीं, भीतर है।
जब भीतर का तम मिटता है, तब जीवन की हर रात दीवाली बन जाती है।
अंतिम विचार
दिवाली से न तो धर्म मिलता है, न धन की स्थिरता।
यह तो केवल एक अवसर है — अपने भीतर झाँकने का, स्वयं को रोशन करने का।
बाहर के दीपक कुछ घंटे जलते हैं,
पर भीतर का दीपक एक बार जल गया —
तो फिर कभी बुझता नहीं।
इस वर्ष की दिवाली, बाहर नहीं —
अपने भीतर मनाओ।
वही सच्ची आरती है, वही सच्ची पूजा है,
और वही है असली प्रकाश पर्व।
